"भागते वक़्त से पिछड़ती, पतंग की डोर सी उलझती-सुलझती ज़िन्दगी..
कभी दबती इमारतों में कहीं, कभी आकाश में उड़ान भरती ज़िन्दगी..
कभी दबती इमारतों में कहीं, कभी आकाश में उड़ान भरती ज़िन्दगी..
गहरे पानी में अथाह खजाने सी तो.. कभी किनारे पे मिट्टी सी होती ज़िन्दगी..
बड़ी अजीब सी फिर भी आकर्षक लगती, मुझे कभी अपनी, कभी तुम्हारी ज़िन्दगी.. "
बड़ी अजीब सी फिर भी आकर्षक लगती, मुझे कभी अपनी, कभी तुम्हारी ज़िन्दगी.. "
- लता ओझा
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