Friday, April 1, 2011

Random Sentences in Hindi

माफ़ कीजिये पर जो भगवान से सीधे संपर्क में रहता है वो फेसबुक पर मनोरंजन के लिए ये कहता नहीं फिरता कि "हम बजरंगी से सीधे संपर्क मे रॅहते हैं". धर्म और भगवान मनोरंजन का साधन नहीं हैं और न ही पोलिटिकल रिवेंज के माध्यम।

हाँ, ये हमपर निर्भर करता है कि हम उनके साथ क्या करें. लक्ष्मी रूप हिन्दू नारियां सोना शरीर पर धारण करती हैं - कोई आज की नारी पैर में कर ले - धारण करने का कार्य तो समान लगता है पर अंतर अनन्त है...

नाम पर नहीं बनाया काम पर बनाया - हनुमान जी राक्षसों का नाश करने प्रभु का काम करने आये थे - जो भी प्रभु का कार्य करेगा वो भगवान का नाम ले सकता है

प्रॉब्लम ये है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा पर मन नहीं चंगा पर फिर भी कठौती में पानी लेकर घूमने वालों को इज्जत नहीं

नाम पर नहीं बनाया काम पर बनाया - हनुमान जी राक्षसों का नाश करने प्रभु का काम करने आये थे - जो भी प्रभु का कार्य करेगा वो भगवान का नाम ले सकता है

अच्छा आपलोग भगवान से "सीधे संपर्क" में रहते हैं शायद इसीलिए दुखी गरीबों की सुनने में इतना वक़्त लगता है उन्हें :) थोड़ा फ्री छोड़ा कीजिये उन्हें और भी काम करने हैं आपके मनोरंजन के अलावा :) और भगवान से मिलने हाजी अली जाने की क्या जरुरत जब "सीधा संपर्क" २४/७ है ही तो!

सॉरी, भूल गया - हाजी अली भी "मनोरंजन" के लिए जाना है - वरना भगवान से संपर्क तो हमेशा रहता ही है, डगर डगर भटकने की जरुरत नहीं।

हाँ, साल में ९ महीने हाजी अली के पास का गन्दा सड़ा पानी बहुत सुगंध देता है - बस जब पानी ज्यादा होता है तो सफाई हो जाती है.

और नहीं, सीरियसली मत लीजिए - मैं भी सिर्फ मनोरंजन ही कर रहा था - निंदा सुख सबके लिए है

बस भगवान के विपक्ष में नहीं पक्ष में था. भगवान को घसीट कर नहीं

नहीं भाई, आप भगवान के लिए कुछ अच्छा बोलिए तो मैं 'लाइक' ही करूँगा। पिछले पोस्ट में हनुमानजी को छोड़ने की बात - इस पोस्ट में भगवान को एक दल  के विरुद्द प्रयोग करके अपना मनोरंजन करना - ये सब ठीक नहीं। कोई बात नहीं, अब मैं दूसरा कुछ पढता हूँ.

ये मैंने डिलीट कर दिया - पर सिर्फ बता दूंगा कि मुझे ये पोस्ट पसंद नहीं आया - भगवान से मजाक मुझे पसंद नहीं

आप कुछ भी करें व्यक्तिगत लेवल पर वो ठीक है पर आप फेसबुक पर "ग्लोबली" शेयर करके इस तरह मजाक उड़ा रहे हैं वो आपका "व्यक्तिगत" व्यवहार नहीं बल्कि हनुमान जी का मजाक उड़ाना है. हनुमान जी को जो बोलिए अपने घर में या मंदिर में पर फेसबुक पर सबके सामने नहीं

जबसे आमिर खान ने कहा - मेरी फिल्म पसंद नहीं है तो मत देखो, बीड़ी वालों ने कहा - मेरा धुआँ पसंद नहीं है तो मत पियो। अब सिर्फ इसलिए कि बीड़ी पीने वाले आमिर खान नहीं उनका कहना गलत नहीं बोल सकते क्योंकि क़ानून सबके लिए एक होना चाहिए।

पुराना जमाना ईमानदारी का था - कोई बिना देखे विश्वास नहीं करता तो दिखाना पड़ता था. अब जो बोलो फर्क नहीं - जिसे विश्वास करना है करेगा और जिसे नहीं वो फिर भी नहीं करेगा। और तो और अब तो भाई किसी को किसी की न पड़ी है - किसे कितना मिला या नहीं उससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता - समाज समाज नहीं रहा

अभी देखिये सपना जी ने ऊपर क्या लिखा "ग़रीब परिवार की लडकी ब्याह कर लाए (मजबूरी में)". लड़की "गरीब परिवार" की थी तो उसे कैसी तुच्छ दृष्टि से देखा गया यहाँ भी - एक और नारी द्वारा भी! यही तो समाज की विडम्बना है - हमसब अपने आप को सही साबित करने के पीछे पड़े हैं न कि कुछ और.

बात "मज़बूरी" की नहीं, बात "गरीब परिवार की" थी. अगर आपने लिखा होता कि अपाहिज या अनपढ़ से शादी करनी पड़ी तो वो समझ में आता - गरीब परिवार की बात कुछ और है. आशा है आप समझ सकती हैं. धन्यवाद

पर उसके लिए अनफ्रेंड नहीं किया करते - आजकल अनफॉलो किया करते हैं लोग. अनफ्रेंड करने के लिए कोई सीरियस फाइट या कुछ तो दुर्घटना होनी चाहिए। पर जाने वाले को जाने देना चाहिए - नेगेटिव एनर्जी कम होगी तो पॉजिटिव को मौका मिलेगा

ये कौन से घोस्ट्स से लड़ते हो तुम बीच-बीच में कुछ समझ नहीं आता. एक बार बचपन में मैंने सपना देखा कि मैं बाल राम हूँ राक्षसों से लड़ता रहा पूरी रात सपने में - उसके बाद कभी नहीं लड़ा

ऐसे, कट्टर लोगों को सीरियसली नहीं लेते तो किन्हें लेते हैं सीरियसली - मनोरंजन करने वालों को? ये क्या बात हुई? या फिर किसी को सीरियसली नहीं लेते? फिर तो

ऐसे दूसरों को कट्टर बोलने से आपके सर के आस पास एक दिव्य ज्योति दिखाई देने लगती है क्या?

इसी लिए पुराने ज़माने में भगवान के नाम पर लोग नाम रखते थे - नाम लेने से भी पुण्य मिलता था. अब समझ में आया कि बजरंग दल ने ऐसा नाम क्यों रखा - ताकि जब भी कोई उनका नाम ले तो उसे पुण्य मिले। :)

करीम'स (दिल्ली) - सिर्फ नॉन-वेज ही फेमस है वहाँ - वेज वाले भूल कर भी न जाएँ। और गन्दगी, भीड़-भाड़, तंग गालियां, पीड़ादायी शोर-गुल, इन सबके लिए तैयार रहिए। आर्डर देने पर परोसने में भारी देरी एक्सपेक्टेड है तो शोर गुल में चिल्ला-चिल्ला कर साथिओं से बात करते-करते गला ख़राब होने का डर है। और हाँ इतने कष्ट के बावजूद लोग वहाँ जाते हैं वो खाने के स्वाद के लिए नहीं बल्कि किसी न किसी व्यक्ति के सजेशन पर जाते हैं - ताकि "हम भी देखें - कोई ये न कहे कि यहाँ अभी तक नहीं गए"। ये ऐसी जगहों में से एक है जहाँ से प्रताड़ित होकर लौटने के बाद भी कोई "लोक लाज" के डर से ये नहीं कहता कि "परेशानी हुई" या "उतना मजा नहीं आया" :) और लोग क्यों ऐसी गन्दी जगहें सजेस्ट करते हैं? क्योंकि जो भी बाहर से आता है वो ऐसी कुछ "लोकल खासियतों" के बारे में पूछता है और अगर आप ना बताएं तो सोचेगा कि आप अपने शहर को ज्यादा नहीं जानते। बस सब चल रहा है इसी तरह और हमारे स्टूपीडिटी के कारण वहां का खाना इतना ज्यादा महँगा है - नॉट वर्थ द प्राइस।

सबसे ज्यादा जिद्दी स्वाभाव दिखाता है - बचपन में दीदी से झगड़ा हुआ तो छोटी से छोटी चीज को "नहीं करूँगा" या "नहीं दूंगा" लेकर बैठ जाओ और मत मानो चाहे दुनिया बर्बाद हो जाये। ऐसे मामलों में दोनों पक्ष दोषी होते हैं इसलिए हमारी मम्मी दोनों को सजा देती थी :)

जब से टेलीविज़न न्यूज़ चैनल्स पॉपुलर हुए हैं, ऐसी बकवास चीजें ज्यादा फैली हैं

सब डिपेंड करता है कि हम जिंदगी में कहाँ हैं

जॉन अब्राहम की तरह जो लोग दिनों में नहीं बल्कि पलों में जीते हैं, उन्हें कोई चिंता नहीं

ऐसे ये बात व्यंग्य बिल्कुल नहीं, बहुतों के लिए सोलह आने सही बात है :)

मेरा मानना है कि भौतिकता में वो हमेशा आगे रहेंगे जैसे आध्यात्म में हम - अनलेस कि तृतीय विश्व युद्ध हो जाये और पता नहीं फिर क्या हो

एक मैच या एक ओवर में तो गधा भी पहलवान बन जाता है - मुझे लगता है फाइनल मैच ३ मैचों में जो २ जीते वो कप ले जाये - ऐसे ही होना चाहिए। एक मैच जीतने या हारने से कुछ साबित नहीं होता

डिस्क्लेमर देना भूल गए आप! आज के समय में ईमानदारी से बोली गई बातें १० में ८ बार खतरनाक और नुकसानदेह साबित हो सकती है - और जो इतने मच्योर हैं उन्हें एक्सप्लेनेशन की जरुरत नहीं पड़ती

जिन्हे उसका लाभ मिलता है वो आपके जैसे सत्य वचनों को इग्नोर करना कभी का सीख चुके हैं :) भाई इंसानियत में अगर कुछ शाश्वत है तो वो इंसान की सेल्फिशनेस है, बाकी सब कुछ डायल्यूट  हो चुका है

अब कोई सूरज को सूरज मान जाये तो

विजय माल्या या सारे ब्लैक मनी वाले उद्योगपति पढ़े लिखे ही तो थे! तो सिर्फ पढ़े लिखे होने से क्या होता है?

वाह - ऐसी उम्र में इतना ज्ञान - कौन सी चक्की का आटा खाते हो? :) बहुत बढ़िया लिखा है...

मैं उनका आटा नूडल्स खाता हूँ - शायद यही अंतर है :)

इसी लिए कहा गया है कि हर चीज का एक सही 'वक़्त' होता है. बच्चों को हड्डी में वैक्सीन (टीका) लगते देखा तो सोचा कि अगर अब बड़े में लगना होता तो दुनिआ की आधी आबादी लगवाती ही नहीं

ऐसे जब मेरी बेटी को छिदवाना होगा तब पता चलेगा :) आजकल तो हॉस्पिटल्स में होता है ये - बोलते हैं दर्द काम होता है और सेफली होता है. मैंने सोचा है कान तक ठीक है नाक जरुरी नहीं :)

ऐसे इसे नारीवाद समझ कर आँसू बहाना ठीक नहीं -

टैलेंटेड और ईमानदार जरूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए जहाँ तक हो सके - चाहे पुरुष हो या महिला।

मैंने उसी समय देखी थी और पसंद आई - बर्नआउट

तो आपकी बुक पब्लिश हो गई - मैंने अभी जाना। बहुत बहुत बधाई!!! बहुत मजा आया :) ऑल द बेस्ट! :)

कभी एक कली की फोटो लीजिए और जिस दिन से वो खिले तो फिर हर सुबह उसकी फोटो लीजिए जबतक वो है और कोलाज बनाइये देखिये कैसा लगता है उसके डेवलपमेंट का साइकिल। ऐसे बच्चों का प्रोजेक्ट लगता है :) बस ये आईडिया आया आपका पोस्ट देखकर - मैंने कभी नहीं किया ऐसा

क्या लिखते हैं आप :) दुनिया हिला देते हैं :)

जब लोगों को डराकर कोई बात समझाने की कोशिश होती है, जैसे आपने कहा कि समझाया जाता है, जैसे उड़ जाओगे, भूगर्भित होजाओगे, इत्यादि तो मुझे अच्छा नहीं लगता - गुस्सा आता है :)

ऐसे मुझे लगता है कि आईआईटी की फीस बढ़ा देने से आईआईटियंस के पास होते ही विदेश भागने की टेंडेंसी में बढ़ोत्तरी होगी। जिस तरह मेडिकल की पढाई महँगी होने से लुटेरे डॉक्टरों की संख्या हमेशा ज्यादा रही है.

एक लाख

फीस की समस्या अपने आप में बड़ी नहीं है पर इसके पीछे सरकार की जो "मंशा" है वो डराती है।

ऐसे एक बात और - असली चिंता उन्हें नहीं है जिनके बच्चों ने आईआईटी जेईई पास कर रखा है - उन्हें लोन मिलेगा और आसानी से चुकेगा भी. असली चिंता हमारे जैसे लोगों को है 'खाली-पीली' :)

आप अकसर ऐसा देखेंगे कि विषयों की तथ्यपरक विवेचना एक सामान्य जन के बस की बात नहीं होती।

एक सामान्य मस्तिष्क को "सही गलत" की बहुत 'ओवर सिम्प्लिफायड' जानकारी ही समझ में आ सकती है उससे ज्यादा नहीं।

तो "द्रोण गलत - एकलव्य सही", "लक्ष्मण गलत - सूर्पणखा सही", "सीता गलत - लक्ष्मण सही", "विभीषण गलत - रावण सही" जैसी अवधारणाएं प्रचलित होने के पीछे यही कारण हैं।

सोशल मीडिया आने से एक अव्वल दर्जे के मस्तिष्क का एक अति साधारण मस्तिष्क से मिलान होता है।

नतीजा अक्सर ये होता है कि प्रतिभासम्पन्न हतोत्साहित होता है और जड़बुद्धि तो उटले घड़े पर जल पड़ने से जैसे अलग हो जाता है वैसे ही वह "सूखा" ही रह जाता है।

आप अपनी विवेचना जारी रखिए और हतोत्साहित न हों।

भैंसा हरी घास के  को दूर से सिर्फ घूर रहा है - खाता क्यों नहीं?